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आप सुधि पाठकों के लिए रविवार को यह पोस्ट लिखते समय मेरे जेहन में बिहार के मुंगेर जिले में छह लोगों को शनिवार की तड़के माओवादियों द्वारा मौत के घाट उतारे जाने की बात उमड़-घुमड़ रही है। यहां (बनारस में) बैठकर पीड़ित परिवारों की व्यथा और पुलिस की बेचारगी की थोड़ी-बहुत कल्पना कर रहा हूं। आज से करीब चार साल पहले ( वर्ष 2002 में जून से मई 2007 तक) सोनभद्र में ऐसी ही कुछ घटनाओं से प्रत्यक्ष रूबरू हुआ था, इसलिए दर्द का मामूली सा एहसास है। नीतीश जी के कथित सुशासन में भी यह क्रम नहीं थमा, इसलिए पीड़ा कुछ ज्यादा है। दरअसल बिहार और उप्र के पूर्वांचल में खास तौर पर सोनभद्र, चंदौली, मिर्जापुर गाजीपुर तथा बलिया में दो तरह का हिंदुस्तान है एक उन लोगों का जो इसे इंडिया कहते हैं, दूसरा उनका जो इसे भारत या हिंदुस्तान कहते हैं। (दो दिन पहले ही एक खबर अखबार में थी कि इस देश को किस नाम से पुकारा जाय, यह अपना गृहमंत्रालय भी नहीं जानता, खैर।) गरीबी और बेवसी इस इलाके का सच है और माफिया भी। इतना ही नहीं समाजवाद के ढेरों पहरूए भी इसी धऱती की उपज हैं। कहने का मतलब यह है कि हर तरह से यह इलाका संपन्न होने के बावजूद विपन्न है। 2002 के आखिर में कैमूर जिले के भभुआ में पीडब्यूजी के हार्डकोर और अब सांसद कामेश्वर बैठा के दाहिने कमलेश चौधरी से मुलाकात हुई थी, अखबार के लिए इंंटरव्यू के सिलसिले में। तब जितना समझ पाया था, उससे यही लगा कि बंदूक उठाए यह लोग दिग्भ्रमित हैं, लेकिन बाद में कुछ औऱ प्रसंगों के अध्ययन से लगा कि दिग्भ्रमित लोगों के पीछे सुविचरित रणनीतिकार हैं। किसी एक संगोष्ठी में एक विद्वान वक्ता का यह कथन मुझे भुलाए नहीं भूलता कि आप इंसान को मार सकते हैं विचार को नहीं। तो क्या माओत्से तुंग की विचारधारा यहां अमर हो चली है और उसके अनुयायियों को हमारी व्यवस्था कभी परास्त नहीं कर पाएगी। यह लिखते वक्त मुझे पूर्व गृहसचिव जीके पिल्लै की यह चेतावनी भी ध्यान आ रही है जिसमें उन्होंने कहा था कि लाल सलाम के रणनीतिकारों ने 2050 तक भारत की सत्ता कब्जाने का लक्ष्य तय किया है। ..तो मैं तिरंगे को लेकर चिंतित हूं ….शायद आप भी होंगे। हम क्या कर सकते हैं इन परिस्थितयों में, आप जरूर बताइएगा । यदि समय रहते हम नहीं चेते तो यह रास्ता किधऱ जाएगा कुछ नहीं कहा जा सकता। फिर हमारी पीढियां कहेंगी लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई।
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